जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे तो सुलगे नाहिं।
रहिमन दाहे प्रेम के बुझि-बुझि के सुलगाहिं॥
रहीम
लकडि़यों में आग लगती है और बुझ जाती है। बुझकर फिर नहीं लगती। लेकिन प्रेम-अग्नि एक ऐसी आग होती है, बुझती है और फिर सुलगती है और यह चक्र निरंतर चलता रहता है। जब यह प्रभु-प्रेम की अग्नि बन जाती है तो मनुष्य का कल्याण हो जाता है।
प्रभु से प्रेम की ज्योत जलाओ और भवसागर से पार हो जाओ।
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