Thursday, 2 November 2017

श्रीमद्भगवद्गीता (२/११, १२)






अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥
भावार्थ : श्री भगवान बोले, हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के 
लिए शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है, परन्तु जिनके
प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी
पण्डितजन शोक नहीं करते॥11॥
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ॥
भावार्थ : न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा
ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं 
रहेंगे॥12॥


उचित कुछ भी नहीं है शोक जिनका,
उन्हीं का तू वृथा ही शोक करता।
अहो ! पथ भ्रष्ट भी तू यों हुआ है,
बड़ा विद्वान् पंडित भी बना है।
मनुज मतिमान बन कर जो विचरते,
गतागत का नहीं वे शोक करते।
               सुधी जन शोक करते ही नहीं हैं।
               कुचिन्तन में विचरते ही नहीं हैं। ११।
 

कभी ऐसा समय जग में नहीं था,
हुआ हो लोप हममें से किसी का।
न आएगा समय, हे ‘पार्थ’ ! ऐसा,
कभी हम तज सकें गुण नित्यता का।
                    सभी नर-नाह ये, मैं और तू भी,
                    सदा से हैं, रहेंगे सब सदा ही। १२।


(गीता माधुरी)

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